महात्मा गांधी की ट्रस्टीशिप का सिद्धांत
ट्रस्टीशिप का अर्थ
ट्रस्टीशिप (Trusteeship) अंग्रेजी भाषा का शब्द है हिंदी में इसका अनुवाद न्यासिता है
ट्रस्टीशिप अर्थात थातीदारी , थाती का अर्थ है न्याय ।
ट्रस्टीशिप का सिद्धांत
गांधीवाद के प्रमुख चार उपागम हैं:-
- सत्य ,
- अहिंसा ,
- स्वावलंबी ,
- ट्रस्टीशिप ।
महात्मा गांधी ट्रस्टीशिप का सिद्धांत सन 1903 में दक्षिण अफ्रीका में दिया गया। ट्रस्टीशिप सामाजिक,आर्थिक दर्शन है। महात्मा गांधी की ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अमीर व्यक्ति को एक ऐसा माध्यम प्रदान करता है जिसके द्वारा वह गरीब एवं गरीब व्यक्तियों की मदद कर सके। गांधीजी के सिद्धांत से गांधी के आध्यात्मिक विकास का दर्शन हुआ है। यह विचार गांधीजी में भगवद्गीता के अध्ययन द्वारा विकसित हुआ है। इस सिद्धांत से प्रेरित होकर विनोबा भावे ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भूदान आंदोलन की शुरुआत की थी। महात्मा गांधी की ट्रस्टीशिप का सिद्धांत किसानों को बदलने का अवसर प्रदान करता है, जिसके माध्यम से गांधीजी अमीर और गरीबों के बीच की खाई को मिटाना चाहते हैं। ट्रस्टीशिप के अनुसार गांधीजी द्वारा पूंजीवाद और साम्यवाद दो मुख्य विचारधाराओं की बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया गया है। ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के अनुसार संपत्ति का वास्तविक मालिक-कैपिटलपति वर्ग नहीं बल्कि संपूर्ण समाज होता है यदि धनवानों द्वारा अपनी इच्छा से संपत्ति का त्याग नहीं किया जाता है तो निश्चित ही भविष्य में रक्त रंजित और अहिंसात्मकता होना अनिवार्य है। ट्रस्टीशिप के संबंध में और आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के पक्ष में यह मत था कि फिजूलखर्ची नहीं करनी चाहिए थी उनका कहना था कि व्यक्ति को सदा जीवन सुख कर अपने खर्चों को नियंत्रित करना चाहिए। महात्मा गांधी की ट्रस्टीशिप की विचारधारा एक गतिशील विचारधारा है।
उन्होंने अपनी पत्रिका हरिजन में लिखा है, " मान लीजिए मेरे पास व्यापार उद्योग द्वारा जोड़ा गया धन जमा हो जाता है, तो मुझे यह जानना चाहिए कि वह सारा धन मेरा नहीं है, उसमे से मेरा उतना ही है जिसका पूरा जीवन जीने के लिए अनिवार्य है, उस अवस्था में शेष धन का उपयोग अन्य लोग भी करें इससे बेहतर तो कुछ और नहीं होगा, मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि शेष धन संपूर्ण समुदाय का है, उसका उपयोग सामुदायिक कल्याण के लिए किया जाना चाहिए।"
महात्मा गांधी को ट्रस्टीशिप की प्रेरणा उपनिषद से मिली थी, इस उपनिषद के प्रथम श्लोक में वर्णित है; " ईश्वर सृष्टि के कण-कण में व्यापक है; जड़ चेतन, राय से लेकर पर्वत तक सब उसी का विस्तार है, सभी ईश्वर स्वरूप है। इसीलिए मनुष्य को चाहिए कि इस सृष्टि का भोग निष्काम भाव से करें, परमात्मा का अंश समझे। पृथ्वी पर मौजूद धन-संपदा किसी की नहीं है इसलिए उसका उपयोग निराश भाव से करना चाहिए ।"
महात्मा गांधी जी संतुलित और आदर्श भारत की स्थापना का सपना लेकर जीवन जी रहे थे आर्थिक समानता स्थापित करने के लिए उनका ट्रस्टीशिप का सिद्धांत प्रमुख है वह एक व्यक्ति की कमाई केवल उसी व्यक्ति तक सीमित नहीं मानते बल्कि समाज के सभी लोगों पर उसका अधिकार मानते हैं महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप के संबंध क मैं अथवा आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के पक्ष में यह मत है कि फिजूलखर्ची नहीं करनी चाहिए। सादगी से जीवन जीना चाहिए।महात्मा गांधी कहते हैं कि अतिशय की आदत अन्य लोगों को उस वस्तु से वंचित कर देती है।
महात्मा गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की आलोचनाएं
महात्मा गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की आलोचना उनके अन्य सिद्धांतों की तुलना में अधिक हुई। पूंजीवादी विचारको और साम्यवादी विचारको दोनों के द्वारा ट्रस्टीशिप की आलोचना की गई। इसे व्यावहारिक सिद्धांत माना गया है। पूंजीवादी एवं साम्यवादियों के अलावा अन्य विचार को द्वारा भी इसकी आलोचना की गई है। गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की आलोचना निम्नलिखित है:-
- आलोचकों का यह है कि महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत केवल स्वपन लोक में ही सिद्ध हो सकता है यह मनुष्य की प्रवृत्ति के विपरीत अव्यावहारिक सिद्धांत है।
- यह सिद्धांत पूंजीपतियों की कमियों पर पर्दा करता है यह इसकी एक अन्य आलोचना है।
- गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत साम्यवादी अधिनायक तंत्र का समर्थन करता है।
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